माना कि आगामी लोकसभा चुनाव पूरी तरह 'मोदी की गारंटी' पर लड़ा जाएगा और मैदान में मुखौटा चाहे कोई हो, पर पीएम मोदी ही हर उम्मीदवार का चेहरा होंगे। बावजूद इसके कुशल राजनीतिज्ञ भगवान श्रीकृष्‍ण के जन्मस्थान से हेमा मालिनी को तीसरी बार टिकट मिलना यहां की राजनीतिक दरिद्रता को पूरी तरह उजागर करता है। 
दरअसल, नटवर नागर कृष्‍ण को अपना इष्‍ट बताने वाली सिने अभिनेत्री हेमा मालिनी ने उनके जन्मस्थान का लोकसभा में प्रतिनिधत्व करते हुए पिछले 10 वर्षों में ऐसा कोई उल्लेखनीय काम यहां नहीं किया जिससे उनकी तीसरी बार चुनाव लड़ने की दावेदारी पुख्‍ता होती, किंतु दुर्भाग्य से नेताओं का इस धर्म नगरी में इतना अधिक अकाल है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को कोई अन्य दिखाई ही नहीं दिया होगा। 
इस बात का थोड़ा अंदाजा तीन बार के सांसद रहे चौधरी तेजवीर सिंह को पार्टी द्वारा राज्यसभा भेजने से भी लगाया जा सकता है, अन्यथा तेजवीर सिंह तो भरी जवानी में कभी उतने सक्रिय नजर नहीं आए जितना भाजपा के किसी सांसद को होना चाहिए था। तेजवीर सिंह का कार्यकाल जिन्होंने देखा है, वह भलीभांति जानते होंगे कि चौधरी साहब किस मिट्टी के बने हैं।    
बहरहाल, इस विश्व विख्यात धार्मिक नगरी की ऐसी राजनीतिक दरिद्रता का एकमात्र कारण यही है कि यहां ऐसा कोई दमदार नेता है ही नहीं, जिसे लेकर पार्टी या जनता आश्वस्‍त हो सके। 
किसी बाहरी उम्मीदवार को तीसरी बार मथुरा से मौका मिलने पर भाजपा का एक बड़ा वर्ग निश्चित रूप से निराश होगा किंतु गौर करेंगे तो ये वर्ग काफी हद तक अपनी इस दशा या कहें कि दुर्दशा के लिए खुद भी जिम्मेदार है। 
RLD का NDA में आना भी एक बड़ा कारण 
इसमें कोई दो राय नहीं कि हेमा मालिनी को तीसरी बार मथुरा से चुनाव लड़ाने का साहस भाजपा शायद इसलिए भी कर सकी क्योंकि वह RLD को NDA का हिस्‍सा बनाने में सफल रही। यदि जयंत चौधरी NDA गठबंधन का हिस्‍सा न होते तो भाजपा को जरूर विचार करना पड़ता, लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि जैसे हेमा मालिनी की किस्मत में ही एक तरह से 'निर्विरोध राजयोग' लिखा है। 
दूसरे दलों से भी कोई चुनौती नहीं 
हेमा मालिनी की किस्मत का सितारा किस कदर बुलंद है इसे यूं भी समझा जा सकता है कि उनकी अपनी पार्टी भाजपा के साथ-साथ विपक्षी दल में भी ऐसा कोई नेता नहीं है जो उन्‍हें टक्कर देने का माद्दा रखता हो।
अगर बात करें सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की तो उसका अब यहां कोई धनी-धोरी ही नहीं रहा। कहने को वह एक राष्‍ट्रीय दल है, लेकिन मथुरा के पिछले चुनाव नतीजे बताते हैं कि अब वह यहां से चुनाव लड़ने की सिर्फ लकीर पीटती है। 
'इंडी' अलायंस के तहत समाजवादी पार्टी से सीटों के बंटवारे में यूं तो मथुरा की सीट कांग्रेस को मिली है परंतु यहां वोट बैंक के नाम पर समाजवादी का सूखा जग जाहिर है। कौन नहीं जानता कि समाजवादी पार्टी के तत्कालीन मुखिया मुलायम सिंह यादव अपने उस दौर तक में यदुवंशी कृष्‍ण की नगरी से कभी किसी एक उम्‍मीदवार को विधानसभा चुनाव नहीं जिता सके, जिस दौर में उनकी प्रदेशभर के अंदर तूती बोलती थी। 
वर्तमान सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने भी मथुरा की मांट सीट से अपने मित्र और पार्टी के कद्दावर नेता संजय लाठर को दो बार चुनाव मैदान में उतारा किंतु उसे जीत नहीं दिला सके। अखिलेश के हाथ में कमान आज भी है परंतु मथुरा से सपा का सूखा खत्म नहीं हुआ। शायद इसलिए भी उन्‍होंने सीटों के बंटवारे में मथुरा की सीट कांग्रेस के मत्थे मढ़ने में अपनी भलाई समझी। 
शेष रह गई बहिनजी की बहुजन समाज पार्टी, तो उसका ग्राफ जब से नीचे आया है तब से ऊपर आने का नाम नहीं ले रहा। हालांकि पहले भी कभी बसपा का मथुरा से कोई सांसद तो नहीं रहा लेकिन विधायक कई रहे हैं। ये बात अलग है कि आज उसके पास मथुरा में न कोई विधायक है और न चुनाव में टक्कर देने लायक कोई नेता। 
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हेमा मालिनी के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव जितना आसान बन गया है, उतने आसान तो उनके लिए पहले दो चुनाव भी नहीं रहे। सतही तौर पर देखें तो किसी दल या नेता के लिए इससे बेहतर स्‍थिति कोई और नहीं हो सकती परंतु यही स्‍थिति न केवल भाजपा के लिए बल्‍कि मथुरा की जनता के लिए भी चिंता का विषय अवश्‍य कही जा सकती है। 
मथुरा का धार्मिक और राजनीतिक दृष्‍टि से एक विशिष्‍ट स्थान है। यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने से लेकर कृष्ण जन्मस्‍थान के लिए लड़ी जा रही लड़ाई तक में यहां के जनप्रतिधियों की भूमिका रेखांकित होती है, लेकिन हेमा मालिनी उसमें अब तक फिट नहीं बैठीं। इन प्रमुख मुद्दों के अलावा यह धार्मिक नगरी अपनी गरिमा के अनुरूप विकास का लंबे समय से इंतजार कर रही है। ऐसे में यहां के लोगों को पार्ट टाइम नहीं, फुल टाइम राजनेताओं की दरकार है। हेमा मालिनी ने पिछले दस वर्षों में यहां कितना विकास कराया है और कितना समय यहां की जनता को दिया है, इसका जिक्र करने की संभवत: अब जरूरत भी नहीं रह गई। जाहिर है तीसरा कार्यकाल कुछ अलग होने की कोई उम्मीद लगाना व्‍यर्थ होगा। 
अंत में यह कह सकते हैं कि नेताओं के लिए राजनीति, कर्म से कहीं अधिक भाग्य का ऐसा खेल है कि वो जब जोर मारता है तो सारे पांसे खुद-ब-खुद फिट बैठ जाते हैं। हेमा मालिनी के पांसे कुछ यही इशारा कर रहे हैं। 
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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