"गोस्वामी" शब्द का अर्थ है "गायों का स्वामी"। यह उपाधि उन लोगों को दी जाती थी जो गायों की देखभाल करते थे और उन्हें दान करते थे।

तुलसीदास गायों के प्रति बहुत प्रेम और सम्मान रखते थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में गायों की महिमा का वर्णन किया है।

अंततः, यह कहना उचित होगा कि गोस्वामी तुलसीदास को "गोस्वामी" की उपाधि उनकी भक्ति, प्रतिभा और गायों के प्रति प्रेम के कारण मिली थी।

गोस्वामी तुलसीदास को गोस्वामी की उपाधि इसलिए मिली क्योंकि उन्होंने कृष्णभक्तों के एक वैष्णव मठ में रहकर कुछ समय तक भक्ति सेवा की थी. तब से उनके नाम के आगे 'गोसाई' या 'गोस्वामी' भी जुड़ गया.

आचार्य सत्येंद्र दास के मुताबिक, गोस्वामी एक जाति होती है जो मथुरा और वृंदावन में ज़्यादातर पाई जाती है. वहां के लोग राधा और कृष्ण की पूजा करते हैं. हालांकि, तुलसीदास को अपनी इंद्रियों को वश में करने के लिए गोस्वामी की उपाधि मिली थी.

कि तुलसीदास ने "गोस्वामी" उपाधि स्वयं धारण की थी। वे अपनी रचनाओं में "गोस्वामी तुलसीदास" के नाम से लिखते थे।

उदाहरण: तुलसीदास ने अपनी रचना "रामचरितमानस" के बालकांड में लिखा है:

"बंदौं गुरु राम रघुवीर, समेत सीता लक्ष्मण।

चारु चरण सुखरूप प्रभु, भव भय नसै मम।"

यहां "गुरु राम रघुवीर" के बाद "गोस्वामी तुलसीदास" लिखा गया है।

श्री रामानंदाचार्य: का मानना है कि तुलसीदास के गुरु, श्री रामानंदाचार्य ने उन्हें "गोस्वामी" उपाधि प्रदान की थी।

उदाहरण: तुलसीदास ने अपनी रचना "विनय पत्रिका" में श्री रामानंदाचार्य की स्तुति करते हुए लिखा है:

"जोरी जोरि नमामि राम राम, रामानंद कृपा करहु।

गोस्वामी तुलसीदास बिनती, स्वामी सुकृत नहिं करहु।"

यहां "गोस्वामी तुलसीदास" का प्रयोग दर्शाता है कि उन्हें "गोस्वामी" उपाधि प्राप्त हो चुकी थी।

अयोध्या के तत्कालीन महाराज: कुछ विद्वानों का मानना है कि अयोध्या के तत्कालीन महाराज ने तुलसीदास को "गोस्वामी" उपाधि प्रदान की थी।

उदाहरण: तुलसीदास ने अयोध्या के तत्कालीन महाराज "दशरथ" की स्तुति करते हुए "रामचरितमानस" में लिखा है:

"दशरथ नृपति सुकृत गति जानी,

मुनि मनावन गेह गेहानी।"

यह दर्शाता है कि तुलसीदास का अयोध्या के राजदरबार में सम्मान था।

कुछ विद्वानों का मानना है कि तुलसीदास की प्रतिभा और भक्ति से प्रभावित होकर जनता ने उन्हें "गोस्वामी" उपाधि प्रदान की थी।
गोस्वामी तुलसीदास को "गोस्वामी" की उपाधि किसने दी, इस बारे में इतिहासकारों में मतभेद है।

कुछ प्रमुख मत इस प्रकार हैं:

स्वयं-प्राप्त: कुछ विद्वानों का मानना है कि तुलसीदास ने "गोस्वामी" उपाधि स्वयं धारण की थी। वे अपनी रचनाओं में "गोस्वामी तुलसीदास" के नाम से लिखते थे।

श्री रामानंदाचार्य: कुछ विद्वानों का मानना है कि तुलसीदास के गुरु, श्री रामानंदाचार्य ने उन्हें "गोस्वामी" उपाधि प्रदान की थी।

अयोध्या के तत्कालीन महाराज: कुछ विद्वानों का मानना है कि अयोध्या के तत्कालीन महाराज ने तुलसीदास को "गोस्वामी" उपाधि प्रदान की थी।

कुछ विद्वानों का मानना है कि तुलसीदास की प्रतिभा और भक्ति से प्रभावित होकर जनता ने उन्हें "गोस्वामी" उपाधि प्रदान की थी।

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