पुरुषों के लिए भी कानून बनाने का समय
कानून के बारे में एक कहावत है कि “Any law loses its teeth and bites on repeated misuse” अर्थात् “बार-बार दुरुपयोग करने पर कोई भी कानून अपने दांत खो देता है और काटने लगता है।” यूं तो किसी कानून का दुरुपयोग हमारे यहां कोई नई बात नहीं है परंतु अब यह अविश्वास से उपजे रिश्तों के लिए एक ऐसी आड़ बन गया है जिसका दुष्प्रभाव पूरे समाज को झेलना होगा।
इसकी नज़ीर के तौर पर गुरुग्राम का आयुषी भाटिया केस हो या मद्रास हाईकोर्ट और पुणे की सेशन कोर्ट के ‘दो फैसले’ जो हमें अपनी सामाजिक व्यवस्थाओं और घरों में दिए जाने वाले संस्कारों को फिर से खंगालने को बाध्य कर रहे हैं कि आखिर सभ्यता के ये कौन से मानदंड हैं जिन्हें हम सशक्तीकरण और स्वतंत्रता के खांचों में फिट करके स्वयं को आधुनिक साबित करने में जुटे हुए हैं।
सिर्फ एक महीने के अंदर जो मामले सामने आए उनमें –
पहला मामला
पुणे स्थित एमएनसी में लाखों के पैकेज पर कार्यरत एक नवविवाहिता ने कोर्ट में तलाक की अर्जी देते हुए स्वयं से आधा वेतन पाने वाले सीआरपीएफ में कार्यरत पति से भारी भरकम ‘भरण-पोषण’ की मांग की, वह भी सिर्फ इसलिए कि उसे वह हनीमून (कोरोना काल में) पर नहीं ले गया।
दूसरा मामला
चेन्नई की एक महिला द्वारा अपने पति को परेशान करने के लिए फैमिली कोर्ट द्वारा तलाक की मंजूरी के बावजूद घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कराई गई ताकि उसको नौकरी से निलंबित किया जा सके। इस पर फैसला देने वाले मद्रास हाई कोर्ट के जस्टिस एस. वैद्यनाथन ने खेद जताते हुए कहा कि दुर्भाग्यवश पति के पास पत्नी के खिलाफ केस दर्ज कराने के लिए #घरेलूहिंसाअधिनियम 2005 जैसा कोई कानून नहीं है और हम विवश हैं निष्पक्ष न्याय ”न” दे पाने के लिए।
तीसरा मामला
हरियाणा के गुरुग्राम पुलिस ने 4-5 जनवरी को 20 वर्षीय युवती आयुषी भाटिया को रेप का आरोप लगाकर जबरन वसूली करने के आरोप में गिरफ्तार किया, जिस मामले में आयुषी भाटिया को पकड़ा गया, वह उसका आठवां शिकार था।
विगत 15 महीनों के दौरान आरोपी महिला ने गुड़गांव के 7 पुलिस स्टेशनों (राजेंद्र पार्क, सदर, साइबर, सेक्टर 5, न्यू कॉलोनी, सेक्टर 10 और सिटी) पर 8 अलग-अलग लड़कों के खिलाफ रेप के मामले दर्ज कराए, वह ये काम बेहिचक करती थी और अब तक वह 7 लड़कों की जिंदगी बर्बाद कर चुकी है। हालांकि आठवें लड़के के ‘शिकार’ होने से पूर्व ही आयुषी का भंडाफोड़ हो गया और अब वह जेल में है। आठ में से तीन की क्लोजर रिपोर्ट में पाया गया है कि महिला की मां और उसका एक चाचा भी इस कथित जबरन वसूली सिंडिकेट का हिस्सा थे, फिलहाल वे फरार हैं।
इसी दिसंबर-जनवरी के दौरान घटित घटनाओं पर एक नज़र
1. भोपाल फैमिली कोर्ट की काउंसलर सरिता रजनी ने मीडिया को जानकारी देते हुए बताया कि भोपाल की एक कामकाजी महिला ने कैंसर पीड़ित पति से की भरण-पोषण की मांग करते हुए निर्दयता पूर्वक कहा कि ‘भले ही अपनी किडनी बेचो लेकिन मुझे पैसे दो’, इस घटना के बाद से वह व्यक्ति खुद पत्नी के इस व्यवहार से सदमे में हैं।
2. गुरुग्राम कोर्ट ने ऐसे ही एक झूठे केस में नाबालिग लड़के को फंसाने वाली बालिग महिला के खिलाफ निर्णय सुनाया कि ‘इच्छा’ पूरी नहीं होने पर महिला ने लिया रेप कानूनों का फायदा लिया।
3. अलवर के मांढण थाना इलाके के स्कूल गैंगरेप केस में हाल ही में एक खुलासा हुआ है कि पूर्व कर्मचारी के कहने पर नाबालिग छात्राओं ने शिक्षकों पर जो आरोप लगाया वह इन शिक्षकों की गिरफ्तारी के बाद झूठा निकला।
ये तो चंद उदाहरण हैं वरना खोजने बैठें तो कई पन्ने भर जाऐंगे, इन सभी मामलों में महिलाओं द्वारा पुरुषों के खिलाफ ”कानून का बेजां इस्तेमाल” किया गया। हो सकता है कि कुछ लोग कहें कि पुरुष भी तो सदियों से ऐसा करते रहे हैं, उन्होंने तो बांझ, डायन व चरित्रहीन कहकर महिलाओं पर लगातार अत्याचार किए और तमाम मामलों में आज भी कर ही रहे हैं। संभवत: इसीलिए आज यह स्थिति आई कि उनके लिए आज कोई खड़े होने को तैयार नहीं और ना ही कोई कानून बन सका है।
मगर हमें ये समझना होगा कि अत्याचार का बदला अत्याचार से नहीं लिया जा सकता। महिला के ऐसा करने पर इतनी हाय-तौबा इसीलिए है क्योंकि एक ”मां” के किसी भी तरह डगमगाने पर पूरा परिवार, सारे रिश्ते नाते तहस-नहस हो जाते हैं और ऐसा होते ही सामाजिक ताना-बाना चरमराने लगता है इसलिए महिलाओं द्वारा पैदा किया जा रहा ये अविश्वास स्वयं उन्हीं के लिए अहितकर है क्योंकि इस ‘अविश्वास’ के लिए न्यायालय भी कैसे न्याय देंगे और कितने कानून बनेंगे।
हमें यह समझना चाहिए कि विवाह कोई अनुबंध नहीं, बल्कि एक संस्कार है। बेशक लिव-इन-रिलेशनशिप को मंजूरी देने वाले घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के प्रभाव में आने के बाद ‘संस्कार’ शब्द का कोई अर्थ नहीं रह गया है परंतु फिर भी हम वर्तमान ही नहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए भी कम से कम बदतर उदाहरण तो ना ही बनें। तलाक के मामलों के अलावा झूठे रेप केस में पुरुषों को फंसाने वाली महिलाएं, उन वास्तविक रेप पीड़िताओं की राह में कांटे बो रही हैं जो वास्तव में इस अपराध को झेलती हैं।
बहरहाल, हमें अपनी आंखें खुली रखनी होंगी ताकि न्याय-अन्याय में सही अंतर कर सकें और वास्तविक अपराधी को सजा तक पहुंचा सकें… फिर चाहे वह कोई भी हो।
– सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी