दुनिया भर में लोग अपने मानवीय अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, जो कि संयुक्त राष्ट्र के अधिकार-पत्र में सम्मिलित है। क्या आप इस बारे में कुछ कहेंगे? और हमें बताएं कि नये मनुष्य के लिए आपका अपना मानवीय अधिकारों का घोषणा-पत्र क्या होगा?

“एक सर्वाधिक मूलभूत बात सदा स्मरण में रखें कि हम एक पाखंडी समाज में जी रहे हैं...”

“जो लोग सत्ता में हैं - राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक तल पर सत्ता में हैं, वे सत्ता में इसलिए हैं कि सभ्यता अभी तक घटित नहीं हुई है। किसी सभ्य समाज को, किसी प्रौढ़ मनुष्य को राष्ट्रों की कोई जरूरत नहीं होती – ये सारी राष्ट्रीय सीमाएं झूठी हैं – सभ्य समाज को, प्रौढ़ मनुष्य को किसी धर्म की जरूरत नहीं होती, क्योंकि उनके सारे धर्मशास्त्र महज किस्से-कहानियां हैं।”

“जो लोग हजारों सालों से सत्ता में रहे हैं – पुरोहित, राजनेता और महा धनाढ्‌‌‌य, उनके पास मनुष्य के विकास को अवरुद्ध करने की पूरी शक्ति है। लेकिन उसे रोकने का सबसे अच्छा ढंग यह है कि मुनष्य को यह विश्वास दिलाया जाए कि तुम सभ्य हो ही: यह धारणा दी जाए कि तुम मुनष्य हो ही। तुम्हें रूपांतरित होने की कोई जरूरत नहीं है; वह सब अनावश्यक है।’”

“सत्य तुम्हें पूरी तरह नग्न कर देता है – जहां झूठ के वस्त्र नहीं होते, पाखंड की परतें नहीं होतीं। यही कारण है कि सत्य को कोई नहीं चाहता; सभी मानना चाहते हैं कि सत्य उन्हें मिला ही हुआ है।”

“और जब तुम्हारे चारों तरफ हजारों-हजार लोग – तुम्हारे माता-पिता, तुम्हारे शिक्षक, तुम्हारे पुरोहित, तुम्हारे नेता – सभी उसमें विश्वास करते हों, तो यह बिलकुल ही असंभव लगता है कि जगत में आने वाले नये लोग, ये छोटे-छोटे बच्चे इन हजारों वर्ष पुरानी धारणाओं के कायल न हों।”

“तो सबसे पहली बात मैं चाहता हूं कि तुम इसे अच्छी तरह समझ लो कि हम अभी भी जंगली हैं, असभ्य हैं। हजारों साल से हम जैसा आचरण करते आ रहे हैं वैसा आचरण सिर्फ जंगली लोग ही कर सकते हैं – मनुष्य नहीं।”

“राजनीतिज्ञ बहुत ही चालाक होते हैं। वे विवादास्पद होना नहीं चाहते, इसलिए वे वही बातें कहते हैं जिन्हें तुम या बाकी सभी लोग पसंद करते हैं। वास्तविक परिस्थिति से, उसमें जो तबदीली चाहिए उससे उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। उनका पूरा प्रयास होता है कि सिर्फ थोथे शब्दों के भुलावे से तुम्हें किस तरह प्रसन्न किया जाए।”

“दुनिया में कहीं भी इन मूलभूत अधिकारों का प्रयोग नहीं होता है।”

वो कहते हैं कि हर इंसान समान है। और निश्चित ही यह हर इंसान के अहंकार को संतुष्ट करता है--किसी को आपत्ति नहीं होती। इंसान को कही गई सबसे खतरनाक झूठों में से एक है यह। मैं तुम्हें कहता हूं कि समानता झूठ है। 
 
दो मनुष्य भी--किसी भी तरह से, किसी भी आयाम से, समान नहीं होते हैं। मेरा यह अर्थ नहीं है कि वे असमान हैं, मेरा अर्थ है कि वे अद्वितीय हैं, अतुलनीय हैं, इसलिए समान या असमान का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। क्या तुम इस कक्ष के खंभों के समान हो? ये खंभे हो सकता है कि सुंदर हों, लेकिन तुम उनके समान नहीं हो। लेकिन क्या इसका यह मतलब होता है कि तुम इन खंभों से छोटे हो? इसका इतना ही मतलब होता है कि तुम खंभे नहीं हो--खंभे खंभे हैं, और तुम तुम हो। 
 
हर इंसान अपने आप में एक वर्ग है। 
 और जब तक कि हम प्रत्येक व्यक्ति के अनूठेपन को न पहचानें, यहां किसी तरह के मानव अधिकार नहीं हो सकते, और यहां किसी प्रकार की सभ्य--मानवीय, प्रेमपूर्ण, आनंदित दुनिया नहीं होगी


 उद्धृत: ओशो, सरमन्स इन स्टोंस, टॉक

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