रिपोर्ट : LegendNews
गौतम चौबे के उपन्यास ‘चक्का जाम’ का लोकार्पण व परिचर्चा
नई दिल्ली। आज से करीब सत्तर वर्ष पहले के काल में जाकर गौतम चौबे ने जिस तरह ‘चक्का जाम’ उपन्यास की रचना की है, वह किसी सिद्धहस्त उपन्यासकार के ही वश की बात हो सकती है। इसे पढ़ते हुए यह विश्वास करना कठिन होता है कि यह लेखक का पहला उपन्यास है। लेखक ने इस उपन्यास में आज़ादी के बाद संघर्षों से जूझते हुए देश-समाज का बेहद बारीकी से चित्रण किया है। यह उपन्यास में इस समय से उस समय में जाने की यात्रा है। इसकी कहानी बहुत प्रामाणिक चीज़ों के इर्दगिर्द बुनी गई है जो इतनी रोचक व दिलचस्प है कि शुरु से अंत तक पाठक को बांधकर रखती है। ये बातें गौतम चौबे के उपन्यास ‘चक्का जाम’ के लोकार्पण व परिचर्चा के दौरान वक्ताओं ने कही।
इस मौके पर लेखक त्रिपुरारी शरण, लेखक-पत्रकार गीताश्री और प्रोफेसर रवि रंजन बतौर वक्ता मौजूद रहे। वहीं कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार हरीश त्रिवेदी ने की। यह लेखक का पहला उपन्यास है जिसका प्रकाशन राधाकृष्ण प्रकाशन ने किया है।
कार्यक्रम के दौरान गीताश्री ने उपन्यास की स्थानीयता और स्त्री पात्रों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा, इस उपन्यास की कथा बहुत पहले की है लेकिन शीर्षक आज के समय में भी बहुत प्रासंगिक है। यह उपन्यास अपने विन्यास में इसलिए ख़ास है क्योंकि यह केवल कुछ किरदारों की नहीं, बल्कि पूरे समाज की कहानी कहता है। गौतम ने उस समय के सिनेमा को भी साथ लेकर इस उपन्यास को रचा है। इसमें सिनेमा से जुड़े अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। इस उपन्यास में बेचैन कर देने वाली बहुत चीज़ें हैं। यह उपन्यास इस समय से उस समय में जाने की यात्रा है।
उपन्यास के स्त्री पात्रों पर बात करते हुए उन्होंने कहा, हमारा समाज दबंग स्त्रियों से डरता है लेकिन इस उपन्यास में लेखक ने माधवी जैसे किरदार को रचकर दबंग स्त्री को अपनी स्वीकृति दी है। इस उपन्यास का अगर कोई नायक या नायिका है तो वह माधवी है।
प्रोफ़ेसर रवि रंजन ने कहा, यह उपन्यास राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में मध्यम वर्ग के योगदान को रेखांकित करता है। मैंने इस उपन्यास का अध्ययन एक समाज विज्ञानी की नज़र से किया है। मैंने पाया कि यह महज एक औपन्यासिक कृति नहीं बल्कि एक जरूरी सामाजिक पाठ भी है। उपन्यास हमें यह भी दिखाता है कि आज़ादी के तुरन्त बाद के दौर में समाज और सरकार के संबंध किस तरह से उभर रहे थे। यह उपन्यास एकसाथ बहुत सारे पहलूओं पर बात करता है। इसमें मध्यम वर्ग का रोजमर्रा के जीवन का संघर्ष है तो पलायन की पीड़ा भी है।
त्रिपुरारी शरण ने कहा, यह उपन्यास अपने आप में उत्कृष्टता का नमूना है। मेरे ऐसा कहने का आधार यह है कि इस उपन्यास की भाषा में लेखक ने जो नवाचार किया है वह अपनी तरह का एक अनूठा प्रयोग है। साहित्य लेखन में देशज शब्दों का इस्तेमाल पहले भी होता रहा है लेकिन इस उपन्यास में लेखक ने सही जगह पर और उपयुक्त सन्दर्भों में जिन देशज शब्दों का चयन किया है वह तारीफ़ के काबिल है।
उन्होंने कहा, लेखक ने बहुत सारी प्रामाणिक चीज़ों के इर्दगिर्द इसकी कहानी बुनी है। अगर कोई मुझसे पूछे कि सन् 74 की रेलवे हड़ताल के बारे में जानने के लिए कौनसी एक किताब पढ़ें तो मैं उसे यही उपन्यास पढ़ने के लिए कहूँगा। बिलकुल सधी हुई भाषा में लिखे गए इस उपन्यास की रोचकता शुरु से अंत तक बरकरार रहती है। इसमें जातीय व्यवस्था का इस तरह से उल्लेख किया गया है कि उसको समझने के लिए आपको अलग से कोशिश करने की जरूरत नहीं पड़ती।
हरीश त्रिवेदी ने कहा, ‘चक्का जाम’ एक पात्र सघन उपन्यास है, इसमें बहुत से पात्र आते हैं और हर किसी की कहानी आपको उतना ही छूती है। इसमें जीवन की सहज सुंदरता है। लेखक ने जिस महारत से इस उपन्यास को लिखा है कि इसे पढ़ते हुए यह भरोसा करना कठिन हो जाता है कि यह उनका पहला उपन्यास है। पाठक जब इसे पढ़ने बैठता है तो इसकी कहानी उसे बांध लेती है। इसमें हम सबके लिए कुछ न कुछ जरूर है। ज्यादातर लोग इस कहानी को पढ़ते हुए पात्रों से अपना जुड़ाव महसूस कर पाएंगे।
उपन्यास के लेखक गौतम चौबे ने कहा, मेरे जीवन के शुरुआती बीस बरस एक रेलवे कॉलोनी में बीते हैं। वहाँ के मेरे आसपास जो लोग रहते थे उनकी यादों में 1974 की रेलवे हड़ताल की स्मृतियाँ कई अलग-अलग रूपों में दर्ज हैं। मैंने उनमें से कुछ किरदारों के पास बैठकर उनकी कहानी को सुना और उस समय के अख़बारों, किताबों और सिनेमा को देखकर उस समय और हालात को समझने की कोशिश की। उसी से इस उपन्यास की कहानी बनी है। यह कहानी रेलवे के बेटे-बेटियों की है। यह कहानी उस काल में जो भी था, उन सबकी है।
कार्यक्रम का आयोजन आत्मिका फाउंडेशन और वसुधैव विमर्श फाउंडेशन के सहयोग से गुरुवार शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में किया गया। इस दौरान बड़ी संख्या में साहित्यप्रेमी मौजूद रहे।
उपन्यास के बारे में :
‘चक्का जाम’ की क़िस्सागोई बहा ले जाती है। देवानन्द दूबे की इस दुनिया में बंगाली माई का चमत्कार भी है और आज़ाद भारत में बचे एंग्लो-इंडियन समुदाय की त्रासदी भी; हवा में उड़ते संन्यासी भी हैं और छात्र-आन्दोलन को संरक्षण देती गृहिणियाँ भी।
यह उपन्यास एक बड़े देश की बड़ी घटनाओं में उलझे इनसान के छोटे सपनों की कहानी है। यहाँ व्यक्तिगत आदर्श पारिवारिक, ऐतिहासिक और राजनैतिक आदर्शों की छाया से दूर, खुले आकाश में आज़ाद खिलने को बेचैन है। यह मासूम बेचैनी इस उपन्यास में कुछ इस तरह उभरती है कि पात्र, घटनाएँ और उनकी बोली-बानी पाठकों के दिल-दिमाग में हमेशा के लिए दर्ज हो जाती हैं।
विशेषज्ञों की राय :
भारत के एक निर्णायक दौर को खँगालता बेहद दिलचस्प उपन्यास — अमिताभ घोष
हिन्दी सिनेमा, गुलशन नन्दा और प्रेम के ऊन से बुना देवानन्द दुबे का स्वेटर क्या यथार्थ का जाड़ा झेल पाएगा? ‘चक्का जाम’ की सतरंगी कहानी और अतरंगी पात्र यही सवाल पूछते हैं। — मनोज बाजपेयी
अंग्रेज़ी राज के रंगून से लेकर जे.पी. आन्दोलन के बिहार तक विस्तृत यह उपन्यास आँचलिक भी है और राष्ट्र की मुख्यधारा से आप्लावित भी। इसमें व्यक्ति और समाज का समीकरण अनेक अप्रत्याशित और प्रासंगिक रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। — हरीश त्रिवेदी
लेखक गौतम चौबे के बारे में :
झारखंड के एक गाँव भोजूडीह में 1986 में जन्म। दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग से पी-एच.डी.। अपने अंग्रेज़ी अनुवादों और संसद टीवी के साहित्य-केन्द्रित कार्यक्रम ‘लिखावट’ के संचालन को लेकर चर्चित। भोजपुरी उपन्यास ‘फूलसुँघी’ (2020), ट्वेल्थ फेल (2021) और आन्द्रे बेते (2022) का अनुवाद। निराला के गद्य साहित्य का अंग्रेज़ी अनुवाद ‘ए पोर्ट्रेट ऑफ़ लव’ (2024) हाल ही में प्रकाशित। अख़बारों और पत्रिकाओं में लेखन। ‘चक्का जाम’ पहला उपन्यास है।
वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के आत्मा राम सनातन धर्म कॉलेज में अंग्रेज़ी के सहायक प्राध्यापक।
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