बेशक एक सशक्त लोकतंत्र के लिए विपक्ष का मजबूत होना बहुत जरूरी है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि विपक्ष ऐसा हो जिसे जनभावनाओं की गहरी समझ हो और उन मुद्दों का अच्‍छा ज्ञान हो जिन्हें वह सत्तापक्ष के सामने चुनौती के रूप में पेश करता है। दुर्भाग्य से देश का प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस इन दोनों ही बातों में कोरा साबित हो रहा है। 
वैसे तो जब से केंद्र की सत्ता पर मोदी की सरकार काबिज हुई है, तभी से कांग्रेस बार-बार अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय देती रही है किंतु ताजा मामला 1976 में किए गए उस संशोधन से जुड़ा है जिसके द्वारा संविधान की मूल प्रस्तावना में समाजवादी (Socialist) और पंथनिरपेक्ष (Secular) शब्द जोड़कर  "राष्ट्र की एकता" को "राष्ट्र की एकता और अखंडता" से बदल दिया गया था। 
आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले के संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों पर दिए गए बयान को लेकर कांग्रेस ने जिस तरह हंगामा खड़ा किया है, उसने एक बार फिर यह जाहिर कर दिया कि देश की यह सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी मोदी सरकार के अंधे विरोध का आत्मघाती रास्ता छोड़ने को तैयार नहीं है। 
आपातकाल के दौरान समूचे विपक्ष को जेल में ठूंसकर संविधान की मूल आत्मा नष्‍ट करने वाली कांग्रेस के नेता आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी की सोच को ही संविधान विरोधी सिद्ध करने पर आमादा हैं जबकि दत्तात्रेय होसबाले ने तो अभी केवल संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्दों को लेकर पुनर्विचार करने भर की बात कही है।    
ऐसा लगता है कि कांग्रेस के नेता मन, वचन और कर्म से दिमागी दिवालियापन का शिकार हो चुके हैं और इसलिए न कुछ सीखने को तैयार हैं, न समझने को। 
कांग्रेसी यह भी बताने को तैयार नहीं हैं कि सर्व धर्म सम भाव, सर्वे भवन्तु सुखिनः तथा वसुधैव कुटुंबकम पर आधारित भारतीय सनातन संस्कृति की मूल आत्मा से छेड़छाड़ करके यदि संविधान में समाजवादी (Socialist) और पंथनिरपेक्ष (Secular) शब्द जोड़े जा सकते हैं तो उन्‍हें हटाने पर विचार क्यों नहीं किया जा सकता। 
कुल मिलाकर देखा जाए तो कांग्रेस यह समझ बैठी है कि जो कुछ उसने सत्ता में रहते किया और जो कुछ वह विपक्ष में रहकर कर रही है, उसे ही अंतिम सत्य मान लिया जाए अन्यथा वह यही दुष्प्रचार करती रहेगी कि देश का संविधान खतरे में है, लोकतंत्र की हत्या की जा रही है और मोदी सरकार किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं है। 
कांग्रेस के नेता ऑपरेशन सिंदूर को असफल साबित करने की कोशिश में पीओके वापस न लाने की दुहाई देते हैं किंतु यदि उनसे कोई यह पूछ ले कि पीओके दिया किसने था तो वह आग बबूला हो जाते हैं। 
इसी प्रकार वह गलवान संघर्ष के दौरान चीन द्वारा भारत की भूमि पर कथित कब्‍जे का ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन अक्साई चीन के रूप में देश को नासूर किसने दिया, यह पूछते ही आपा खो बैठते हैं। 
जम्मू-कश्मीर को अनुच्‍छेद 370 से आच्‍छादित करके देश से काटकर रखने पर कोई कांग्रेसी सफाई तक देना नहीं चाहता किंतु 370 हटाए जाने पर न केवल तमाम सवाल खड़े करता है बल्‍कि यह भी बड़ी बेहयाई से कहता है कि मौका मिला तो उसकी पार्टी कश्‍मीर को फिर से यह विशेष दर्जा देगी। 
कांग्रेसियों की बेशर्मी का आलम यह है कि वह 84 में सिखों के किए गए संहार को एक क्रिया की प्रतिक्रिया बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं लेकिन 2002 के गुजरात दंगों के लिए मोदी को कठघरे में खड़ा करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। वो भी तब जबकि सुप्रीम कोर्ट से भी गुजरात के तत्कालीन मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीनचिट मिल चुकी है। 
यही नहीं, कांग्रेस के नेता मोदी सरकार को संघ की छाया से ग्रसित बताते हैं परंतु मनमोहन सरकार के लंबे कार्यकाल में सोनिया गांधी की भूमिका पर चुप्पी साध लेते हैं। सोनिया गांधी की सुपर पीएम वाली भूमिका के बारे में पूछे जाने पर कांग्रेसी काटने को दौड़ते हैं। 
संविधान के खतरे में होने का झूठा प्रचार करके कांग्रेस को 2024 के लोकसभा चुनाव में कुछ सफलता क्या मिली, उसने इसी झूठ को मूल मंत्र समझ लिया और इसीलिए वह एकबार फिर दत्तात्रेय होसबाले के कड़वे सच का अपने झूठ से मुकाबला करने के लिए खड़ी हो गई है लेकिन अब उसका झूठ लोगों को समझ में आ चुका है। 
जनता जान चुकी है कि मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी की टीम के पास मोदी सरकार के खिलाफ कहने को कुछ भी ठोस नहीं है। चाटुकारों से घिरे गांधी परिवार को जयराम रमेश, पवन खेड़ा और सुरजेवाला जैसे नेता पुदीना के पेड़ पर तो चढ़ा सकते हैं लेकिन सत्ता के सोपान पर बैठाने का माद्दा नहीं रखते। 
कड़वा सच यह है कि आज की कांग्रेस खुशामद पसंद और आत्ममुग्ध नेताओं का ऐसा जमघट बनकर रह गई है जिसमें उसे सिर्फ अपने जयकारे सुनना रास आता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। वह शशि थरूर, मनीष तिवारी तथा आनंद शर्मा जैसे सुलझे हुए अपने ही नेताओं को भी निशाने पर लेने से इसलिए नहीं चूकती, क्योंकि उन्‍होंने मौके की नजाकत को समझा और देशहित की बात की। 
कांग्रेस कभी राजनीति के उस शिखर पर रही है जिस पर पहुंचने का ख्‍वाब तक आज कोई आसानी से नहीं देख सकता, लेकिन वही कांग्रेस आज शून्य की राह पर चल पड़ी है। उसके आत्मघाती कदम उसे तेजी से शून्य की ओर ले जा रहे हैं लेकिन मोदी के अंधे विरोध में वह कुछ समझना नहीं चाहती। 
2029 के लोकसभा चुनावों में भले ही अभी काफी समय शेष है परंतु लगता यही है कि कांग्रेस यह समय भी निरर्थक मुद्दों की भेंट चढ़ा देगी क्‍योंकि फिलहाल उसमें बदलाव की कोई उम्मीद दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही। 
एक बहुत महत्वपूर्ण कहावत है कि भुने हुए चनों से खेती नहीं की जा सकती। इत्तिफाकन यह कहावत इस दौर की कांग्रेस पर पूरी तरह सटीक बैठती है। 
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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