कृषि कानूनों पर कथित किसानों के आंदोलन की “कलंक कथा”
जिस प्रकार हर चमकने वाली चीज ‘सोना’ नहीं होती, ठीक उसी तरह न तो हर ग्रामीण ‘किसान’ होता है और न हर किसान गरीब। अपवाद सभी जगह पाए जाते हैं। फिर चाहे किसान हो या जवान।
जरूरी नहीं कि सीमा पर ड्यूटी देने वाले प्रत्येक जवान के मन में मातृभूमि के लिए जीवन दांव पर लगाने की अभिलाषा हो और ये भी जरूरी नहीं कि आंदोलन की आड़ में सड़क पर उतरने वाले उपद्रवी देशभर के किसानों का प्रतिनिधित्व करते हों।
शहीद होने वाले उन जवानों की आत्मा भी शायद तब रोती होगी, जिन्हें दूर कहीं से ये देखने को मिलता होगा कि उनकी शहादत पर मिले पैसे के लिए उन्हीं का परिवार कैसे एक-दूसरे की जान का दुश्मन बन बैठा है।
किसी शहीद की आत्मा तब भी बिलखती होगी जब देखती होगी कि कैसे उसके परिजन सरकार से उसकी शहादत का सौदा कर रहे हैं और उसके लिए उसका अंतिम संस्कार तक न करने पर अड़ जाते हैं।
कृषि प्रधान देश में कुछ खास इलाके के मुठ्ठीभर लोग कृषि कानूनों को वापस लेने की जिद के साथ यदि सड़क घेर लेते हैं तो इसका मतलब यह नहीं होता कि देश का किसान कृषि कानूनों के खिलाफ है और जो जिद पर अड़े हैं वो किसान ही हैं।
गणतंत्र दिवस पर लाल किले में जो कुछ हुआ, उसे अंजाम देने वाले क्या वाकई किसान हो सकते हैं? यह शंका आज हर भारतीय के मन में घर कर चुकी है।
और यदि किसान ऐसे ही होते हैं तो उपद्रवी किन्हें कहा जाता है, इस पर विचार किया जाना चाहिए।
पुलिस पर तलवारों और लाठी-डंडों से अकारण जानलेवा हमला करने वाले यदि किसान कहलाने के हकदार हैं तो फिर कश्मीर के पत्थरबाजों को भी शांतिदूत मान लेना चाहिए क्योंकि उनके पास अपने पक्ष में दलीलें कम नहीं हैं।
सवा सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाले कृषि बाहुल्य देश में कुछ हजार लोग कश्मीर से कन्या कुमारी तक फैले किसानों के मसीहा नहीं हो सकते।
यदि ऐसा होता तो देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचता जहां किसान सड़क पर उतरकर आंदोलन करता दिखाई न देता।
सीधी सी बात यह है कि किसान आंदोलन की आड़ में जो तत्व आज एक जिद के साथ मनमानी कर रहे हैं, वो वही लोग हैं जो हाशिए पर जा पहुंचे थे और जिनका कोई भविष्य नहीं रह गया था।
26 जनवरी को हुए उपद्रव के बाद इस कथित किसान आंदोलन का चेहरा तब और बेनकाब हो गया जब आंदोलन समाप्त होने की आहट पाते ही सारे फ्यूज दलों के नेता डंडे व झंडे सहित अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने की कोशिश में जुट गए।
कल तक लाल किले पर उपद्रव करने वालों को सरकारी एजेंट बताने वाले ये विपक्षी दल अब उन्हीं उपद्रवियों की लिस्ट हाथ में लेकर इस मांग के साथ खड़े हैं कि किसी संभावित बातचीत से पहले उन्हें रिहा किया जाए।
विडंबना देखिए कि इस सबके बाद भी 6 फरवरी को पैदल दिल्ली कूच करने की धमकी देने वाले कह रहे हैं कि सरकार उन्हें कुचलना चाहती है। उनकी मानें तो पुलिस पिटती रहे और अपने बचाव का इंतजाम भी न करे।
अवरोध खड़े करे तो उसे अत्याचारी बताया जाए और बल प्रयोग किए बिना रास्ता रोकने की कोशिश में पिटती रहे तो पूछा जाए कि गोली क्यों नहीं चलाई। लोगों को लाल किले तक पहुंचने ही कैसे दिया।
गिरफ्तारी करे तो बिना शर्त रिहा करने की मांग की जाए और गिरफ्तारी न करे तो कानून-व्यवस्था पर सवाल खड़े किए जाएं।
सही अर्थों में किसानी करने वालों के सामने बेशक बड़ी समस्याएं हैं और उनका हल होना चाहिए किंतु इसके साथ-साथ उन तत्वों का भी मुकम्मल इंतजाम होना चाहिए जो इन समस्याओं के समाधान में बाधक बनकर खड़े हैं।
फिर ये तत्व चाहे कथित किसान नेता हों, राजनेता अथवा वो स्वयंभू जननेता जो हर वक्त सरकार को ब्लैकमेल करने का मौका तलाशते रहते हैं।
ये तत्व कहते हैं कि नए कृषि कानूनों को बनाने से पहले उनसे क्यों नहीं पूछा गया। जैसे कश्मीरियों के कथित नुमाइंदे कह रहे हैं कि धारा 370 और 35 ए हटाने से पहले उनसे क्यों नहीं पूछा गया।
इन्हें न सरकार पर भरोसा है न संसद पर, यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय और उसके द्वारा गठित कमेटी पर भी भरोसा नहीं है। इन्हें भरोसा सिर्फ खुद पर है और इसलिए वो खुद को सर्वोपरि मानकर चल रहे हैं।
इन तत्वों का इंतजाम होना अब इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इन्हीं की वजह से एक ऐसे वर्ग को हमेशा भारी तकलीफ उठानी पड़ती है जिसका कोई दोष नहीं होता। वो बिना वजह कभी इनकी जिद की चक्की में पिसता है तो कभी इनके नापाक इरादों के असफल होने पर।
वो न किसान है और न जवान है, न नेता है और न अभिनेता है। उसे खेत-खलिहान से कोई वास्ता न सही लेकिन उस सड़क से वास्ता होता है जिसे बंधक बनाकर ये बैठ जाते हैं क्योंकि वही सड़क उसे उस गंतव्य तक लाती-ले जाती है जहां से उसकी रोजी-रोटी चलती है और जिस पर उसके परिवार की निगाहें उसके सकुशल लौटने की आस में टकटकी लगाए देखती रहती हैं।
किसान हो या जवान, सरकार हो अथवा उसके विरोधी, समय आ गया है कि इस निरीह तबके के बारे में भी सोच-विचार किया जाए और एक क्षण को मनन कर लिया जाए कि यदि हर समस्या का समाधान सड़क पर उतरकर अराजकता फैलाना ही है तो फिर संसद में ताला लगा देना चाहिए। चुने हुए जनप्रतिनिधियों को घर बैठा देना चाहिए और ऐसे लोकतंत्र के ढोल को उतार फेंकना चाहिए जिसके कारण अराजकतत्व पूरे देश की व्यवस्था पर हावी होने के बावजूद कहते हों कि सरकार उनका गला घोंट रही है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी