जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है
“उसूलों पर जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है ।”
वसीम बरेलवी का यह शेर, इंसान को इंसान की तरह नज़र आने और इंसान को इंसानियत से पेश आने का सलीका सिखाता है मगर इतनी खूबसूरती से इंसानियत की बात हो और सामने खबरों में बुराड़ी, सतना, मंदसौर आदि-आदि चल रहे हों तो जहन का कसैला हो जाना लाजिमी है।
अंधविश्वास की सारी हदें तोड़कर बुराड़ी में सामूहिक आत्महत्या करने वाले लोग इंसानियत के नाम पर भी किसी रहम के हकदार नहीं हैं। बेशक मानवाधकिारवादी इनके लिए रहम की बात करते हुए इनके मनोविकार का वास्ता देंगे, कुछ ऐसे भी होंगे जो राष्ट्रीय राजधानी में अकेलेपन या यहां के सामाजिक कटाव को ऐसी प्रवृत्तियां पनपने देने के लिए कारण बतायेंगे। शायद ही कोई होगा जो कम से कम सार्वजनिक रूप से इन ”मरने वालों की अपनी सोच” को इनकी आत्महत्या का कारण बतायेगा।
दूसरे उदाहरण भी इंसानियत के ही नाम पर हमें शर्मसार करते हैं। मंदसौर और सतना में बच्चियों के साथ हुई बर्बरता की आलोचना के लिए मेरे शब्दों ने काम करना बंद कर दिया है। हम निर्भया और संभवत: इससे पहले भी ऐसी बर्बरता को सुनते व देखते आए हैं परंतु अब चंद महीने, चंद साल की बच्चियां वहशियत का शिकार हो रही हैं। अपनी उम्र के इस छोटे से अंतराल में वे तो इसका दर्द भी बयां करने की स्थिति में नहीं होतीं। अपराधी पकड़े जायें या नहीं, वे नहीं जानतीं, शरीर के किन भागों को किसने किस मानसिकता से चोट पहुंचाई, वे नहीं बता सकतीं। लगा लो पॉक्सो और चढ़ा दो फांसी पर, चाहे अपराधी को धर्म और जाति पर बांट दो या उसे मानसिक विकार से ग्रस्त बता दो, क्या फर्क पड़ेगा। बच्चियों के शरीर का जो हाल हो चुका, वह अब हमेशा उनके जहन पर हावी रहेगा।
हालांकि मैं यह नहीं कह रही कि वहशियों को सजा न मिले, बल्कि अधिकतम दंड उन्हें दिया जाना चाहिये और संतोषजनक बात ये है कि ऐसा हो भी रहा है। समाज में बलात्कारियों के प्रति घृणा का स्तर बताता है कि हम अब इसे दबाने या सहने की स्थिति से आगे निकल आए हैं, ये अच्छा है परंतु अब इसके आगे क्या।
क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि कहीं न कहीं हम भी समाज में फैल रहे इस कोढ़ के लिए जिम्मेदार हैं। अपने बच्चों को ”भयमुक्त माहौल” न दे पाने के दोषी हैं। ज़रा याद कीजिए कि आपने कब-कब अपने पड़ोसी के बच्चे को गलत बात पर टोका है, या उसके घर शिकायत की है, कब किसी आवारा व्यक्ति को फालतू बैठने के लिए मना किया है, कब अपने या किसी परिचित के बच्चे (बेटा हो या बेटी) को मोबाइल से अलावा भी रिश्तों को निबाहने की सीख दी है, या कब अपने ही बच्चों को बड़ों के पैर छूने की हिदायत दी है जबकि यही वो बातें हैं जो सामाजिक रिश्तों को गहरा करके उन्हें समझने की सीख देती हैं।
हमने स्वयं ही अकेलेपन को फैशन बनाकर कई पीढ़ी पहले से रोपना शुरू कर दिया था लिहाजा अब इसके आफ्टरइफेक्ट कहीं बलात्कार तो कहीं आत्महत्या के रूप में सामने आ रहे हैं।
उक्त सभी घटनाओं में एक बात कॉमन है कि ये सभी समाज के भीतर समाज के ही अकेले होते जाने, हमें क्या… कोई कुछ भी करे, बस हमारा काम बने, हमारा कुछ ना बिगड़े, कोई अपने घर में क्या कर रहा है, ये उसकी प्राइवेसी का मामला है और ये प्राइवेसी ही हमें, हमारे समाज को, हमारे मूल्यों को साबुत ही निगल रही है।
अब समझ में आ रहा है कि जब सामाजिकता दरकती है तो रिश्ते-नाते-परिवार व संस्कार भी दरकते हैं और इनकी दराज़ों से निकलता है अकेलापन, बहशतें, अवसाद। फिर नतीजा बुराड़ी, मंदसौर व सतना जैसे केस में तब्दील हो जाता है। तो आज से ही अपने बच्चों के साथ स्वयं को भी तैयार करें, देश व समाज को सुरक्षित व सुसंस्कृत बनाने के लिए संकल्प तो लेना ही होगा वरना आने वाला समय हमारी निकृष्टता और खुदग़र्जी़ को कभी माफ नहीं करेगा।
-सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी