कितनी काम आएगी सरकारी बंगलों को हड़पने की “मायावी” चाल?
बेशुमार संपत्ति के मालिक उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों ने सरकारी बंगलों पर कब्जा बरकरार रखने की जो “मायावी” तिकड़में भिड़ाई हैं, वो कितनी काम आएंगी यह तो नहीं पता अलबत्ता उनकी ओछी हरकतों ने यह साबित जरूर कर दिया कि अपनी ”हवस” पूरी करने के लिए वह किसी भी स्तर तक नीचे गिर सकते हैं।
लंबे-चौड़े और सुसज्जित सरकारी बंगलों को पूर्व मुख्यमंत्रियों से खाली करने का सुप्रीम कोर्ट से आदेश आने के साथ ही सबसे पहले तिकड़म भिड़ाने की कोशिश की समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने।
अपनी खुद की पार्टी पर कब्जा रखने में असफल रहे मुलायम सिंह यादव ने सरकारी बंगला कब्जाने की कोशिश में बाकायदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलकर उन्हें एक फार्मूला सुझाया किंतु योगी उनकी “भोग लिप्सा” के कायल नहीं हुए लिहाजा उनके साथ-साथ सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को 15 दिन में बंगला खाली करने का नोटिस थमा दिया।
नोटिस तामील होते ही दलितों की मसीहा मायावती ने “मायावी” चाल के तहत अपने बंगले पर ”श्री कांशीराम जी यादगार विश्राम स्थल” का बोर्ड टांगकर विपक्षी दलों के इस आरोप पर स्वयं मुहर लगा दी कि उन्हें दलितों से नहीं, दौलत से ही प्यार है।
विपक्ष द्वारा लगाए जाते रहे इस आरोप की पुष्टि यूं भी होती है कि तीन बंगलों को मिलाकर मायावती द्वारा ही अपने कार्यकाल में बनवाए गए इस सरकारी बंगले के सामने उन्होंने अपना उतना ही विशाल निजी आशियाना भी बनवा रखा है, बावजूद इसके वह सरकारी बंगला खाली नहीं करना चाहतीं।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि एक अविवाहित औरत को अकेले रहने के लिए आखिर कितने बंगले चाहिए, बेशक वह औरत यूपी की मुख्यमंत्री ही क्यों न रही हो।
इस मामले में एक और खुलासा यह हुआ है कि राज्य सम्पत्ति विभाग ने अगस्त 2016 में ही कांशीराम यादगार विश्राम स्थल के नाम पर इस आवास का आधा हिस्सा ट्रस्ट के नाम आवंटित करने से मना कर दिया था। इसके बाद यह पूरा बंगला (13 ‘ए ’माल एवेन्यू) पूर्व सीएम के तौर पर मायावती को आवंटित कर दिया गया था।
इसके बाद बीएसपी की ओर से कांशीराम यादगार विश्राम स्थल के लिए इस आवास को आवंटित करने संबंधी कोई आवेदन नहीं किया गया। मायावती को अब इसे यादगार स्थल बनाने की याद तब आई जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश की तलवार सिर पर लटकी दिखाई दी लिहाजा बंगले पर एक बोर्ड टांगकर उसे कांशीराम यादगार विश्राम स्थल घोषित कर दिया। ऐसा विश्राम स्थल जिसमें पिछले छ: साल से मायावती अकेली विश्राम कर रही हैं।
गौरतलब है कि जब मायावती यूपी की मुख्यमंत्री थीं तो उनके बंगले के पास ही कांशीराम विश्राम स्थल हुआ करता था। बाद में कांशीराम विश्राम स्थल को कथित रूप से उन्होंने अपने बंगले में मिला लिया। इसके पीछे वजह यह थी कि उस वक्त कांशीराम विश्राम स्थल का मासिक किराया करीब 72 हजार रुपये था, वहीं मायावती के बंगले का मासिक किराया मात्र 4212 रुपये।
अब मायावती का तर्क है कि उनका आवास, कांशीराम जी का विश्राम स्थल भी है। इसके बड़े हिस्से में कांशीराम का संग्रहालय है और दीवारों पर मूर्तियां लगी हुई हैं। वह तो इसके एक छोटे से हिस्से में ही रहती हैं इसलिए इसे कांशीराम यादगार विश्राम स्थल घोषित किया गया है।
अपने पिता को बेदखल कर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर काबिज होने वाले यूपी के एक और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी मुंहबोली बुआ मायावती की राह पकड़ कर सरकारी बंगला खाली करने के लिए दो साल का लंबा वक्त मांगा है।
अखिलेश यादव ने राज्य सम्पत्ति विभाग को इस बावत लिखे गए पत्र में दलील दी है कि उन्हें प्राप्त Z+ श्रेणी की सुरक्षा के मद्देनजर और समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने की वजह से प्रतिदिन आने वाले हजारों लोगों को देखते हुए उन्हें फिलहाल बंगले से बेदखल न किया जाए।
अखिलेश यादव का यह बंगला न सिर्फ अपने पिता मुलायम सिंह यादव के बंगले से सटा हुआ है बल्कि अंदर ही अंदर दोनों बंगले आपस में मिले हुए हैं जिससे पिता-पुत्र का एक-दूसरे के घर आना जाना बना रहता है।
इस बात का खुलासा गत विधानसभा चुनाव से पहले तब हुआ था जब मुलायम अपने अधिकार सीज कर दिए जाने को लेकर अखिलेश पर सख्त होने का नाटक कर रहे थे और अखिलेश यह साबित करने में लगे थे कि जिसका नाम ही मुलायम हो, वह सख्त कैसे हो सकता है।
सर्वविदित है कि पार्टी कब्जाने से लेकर मुलायम की सख्ती को दिखावटी साबित करने तक में अखिलेश अंतत: सफल रहे और वनवास मिला चचा शिवपाल को। वो शिवपाल जिनकी जीभ यह कहते-कहते सूख गई कि वह जो कुछ कर रहे हैं अपने बड़े भाई मुलायम के मान-सम्मान के लिए कर रहे हैं।
बहरहाल, न मुलायम का मान रहा और न शिवपाल का सम्मान। रहा तो सिर्फ और सिर्फ अखिलेश का गुमान। पार्टी और पिता के बीच की जंग में पार्टी जीत गई और हारा हुआ पिता अब संरक्षक कहलाकर खुश है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि पार्टी से बेआबरू करके बेदखल कर दिए गए मुलायम सिंह यादव एक अदद सरकारी बंगले पर किसी न किसी तरह दखल चाहते हैं। चाहे उसके लिए ”भगवा सरकार” की ”चौखट’ ही क्यों न चूमनी पड़े।
यदि यही मानसिकता हर मुख्यमंत्री की हो जाए और प्रत्येक मुख्यमंत्री एक लंबा-चौड़ा सरकारी बंगला कब्जा ले तो एक दिन ऐसा भी आ जाएगा जब समूचे लखनऊ में केवल पूर्व मुख्यमंत्रियों के आवास शेष रह जाएंगे।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह के सख्त आदेश इस मामले में दिए हैं और इस आशय की टिप्पणी भी की है कि पद मुक्त होने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री भी “आम आदमी” हैं, उससे लगता नहीं कि मुलायम, माया या अखिलेश की कोई तिकड़म उनके काम आएगी किंतु इस सबके बाद भी ये तीनों नेता अपनी बदनीयती जाहिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।
इस तरह के कृत्यों में लिप्त रहने वाले नेताओं को क्या वास्तव में नहीं मालूम कि इस देश में एक अदद मकान का ख्वाब पूरा करने के लिए आम आदमी को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। अपनी जीवनभर की जमा पूंजी लगाकर भी बैंकों से कर्ज लेना पड़ता है।
क्या ये नेता कभी नहीं सोचते कि लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी और इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन ने भी अपने लिए आलीशान महल तैयार कराए थे लेकिन आज उन महलों का क्या हो रहा है।
लोकतंत्र का इतना भी दुरुपयोग उचित नहीं कि न ”लोक” रहे और न ”तंत्र” क्योंकि जिस दिन ऐसा हो गया, उस दिन ”सरकारी” तो क्या देश-दुनिया में फैले ”निजी” बंगले भी इनके किसी काम नहीं आएंगे।
जिन्ना की तरह एक दीवार पर टांग देना भी लोगों को अखरेगा क्योंकि ये दुनिया का हर देश दौलत, शौहरत और इज्जत की हवस के पुजारियों को नहीं, उन लोगों को पूजता है जो उसकी आन-बान व शान के लिए मर-मिटने की चाहत रखते हैं।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी