कुछ लिखने से पहले…एक दृष्टांत
महाभारत का एक दृष्टांत है जिसे अकसर हम अपनी बातों में दोहराते हैं और दूसरों को उपदेशात्मक शैली में सुनाते भी हैं, मगर सिर्फ दूसरों को, स्वयं इसे कितना सूझते-बूझते हैं इससे कोई मतलब नहीं।
ये दृष्टांत, श्रीकृष्ण और द्रौपदी संवाद से है…
18 दिन के युद्ध ने, द्रोपदी की उम्र को 80 वर्ष जैसा कर दिया था…शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी!
शहर में चारों तरफ़ विधवाओं का बाहुल्य था..पुरुष इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ता था।
अनाथ बच्चे घूमते दिखाई पड़ते थे और उन सबकी वह महारानी
द्रौपदी हस्तिनापुर के महल में निश्चेष्ट बैठी हुई शून्य को निहार रही थी ।
तभी, श्रीकृष्ण कक्ष में दाखिल होते हैं…
द्रौपदी कृष्ण को देखते ही दौड़कर उनसे लिपट जाती हैं …
कृष्ण उसके सिर को सहलाते रहते हैं और रोने देते हैं…
थोड़ी देर में, उसे खुद से अलग करके समीप के पलंग पर बैठा देते हैं।
द्रोपदी: यह क्या हो गया सखा ??
ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था ।
कृष्ण: नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली..
वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती! वह हमारे ”कर्मों को परिणामों में” बदल देती है।
तुम प्रतिशोध लेना चाहतींं थींं ना, और तुम उसमें सफल भी हुईंं द्रौपदी! तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ… सिर्फ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं, सारे कौरव समाप्त हो गए! तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए !
द्रोपदी: सखा, तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या उन पर नमक छिड़कने के लिए ?
कृष्ण: नहीं द्रौपदी, मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने के लिए आया हूँ! हमारे कर्मों के परिणाम (अच्छे अथवा बुरे) को हम दूर तक नहीं देख पाते और जब वे हमारे सामने आते हैं, तब तक परिस्थितियां बहुत कुछ बदल चुकी होती हैं, तब हमारे हाथ में कुछ नहीं रहता।
द्रोपदी: तो क्या, इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदायी हूँ कृष्ण?
कृष्ण: नहीं, द्रौपदी तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो…
लेकिन, तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी दूरदर्शिता रखतीं तो स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पातीं।
द्रोपदी: मैं क्या कर सकती थी कृष्ण?
कृष्ण: तुम बहुत कुछ कर सकती थीं! …जब तुम्हारा स्वयंवर हुआ…तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करतीं और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने का एक अवसर देतीं तो शायद परिणाम
कुछ और होते।
इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पाँच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया…तब तुम उसे स्वीकार नहीं करतीं तो भी परिणाम कुछ और होते।
और…
उसके बाद तुमने अपने महल में दुर्योधन को अपमानित किया…
कि अंधों के पुत्र अंधे होते हैं। वह नहीं कहतीं तो तुम्हारा चीर हरण नहीं होता…तब भी शायद परिस्थितियाँ कुछ और होतीं ।
हमारे शब्द भी
हमारे कर्म होते हैं द्रोपदी…
और इसलिए हमें अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना बहुत ज़रूरी होता है…अन्यथा उसके दुष्परिणाम सिर्फ़ स्वयं को ही नहीं… अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं ।
संसार में केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है…जिसका “ज़हर”
उसके “दाँतों” में नहीं, “शब्दों” में है…
द्रोपदी को माध्यम बनाकर हमें श्रीकृष्ण ने वो सीख दे दी जो आएदिन हम गाल बजाते हुए ना तो याद रख पाते हैं और ना ही कोशिश करते हैं। नतीजतन घटनाएं दुर्घटनाओं में बदल जाती हैं और मामूली सा वाद-विवाद रक्तरंजित सामाजिक क्लेश में…
मॉबलिंचिंग और क्या है…अपनी वाणी, अपनी आकांक्षाओं की हिंसक परिणति ही ना। जो स्वयं कुछ नहीं कर पाते वे भीड़ का सहारा लेते हैं और ऐसे तत्व ही समाज और सरकारों की नाक में दम किए हुए हैं। वे सोचते हैं कि जो अपराध वे कर रहे हैं उसे कोई नहीं देख रहा परंतु नियति का बूमरैंग घूमता अवश्य है।
बहरहाल, आंखें मूंदकर स्थापित की गईं धारणाओं को बदलने का अब वक्त आ गया है। धारणाएं जैसे कि कोई मां अपने बच्चे का बुरा नहीं सोचती, साधु सदैव दूसरों का कल्याण चाहता है, अनुसूचित और अल्पसंख्यक समुदाय हमेशा ‘पीड़ित’ ही होते हैं, बलात्कार हमेशा महिला का होता है, कामगार हमेशा शोषित रहता है, बच्चे हमेशा सच ही बोलते हैं, शिक्षक हमेशा शिष्य को सही शिक्षा देते हैं, डॉक्टर सेवाभावी होते हैं, व्यवसायी हमेशा चोरी करता है और राजनेता निकृष्ट और भ्रष्ट होते हैं और अधिकारी ‘बेचारे’…आदि उदाहरण अनेक हैं जो शब्दों के सहारे ही अब तक पीड़ित दिखकर पीड़क बनते गए और अब स्थिति विस्फोटक हो चुकी है।
श्रीकृष्ण याद आ रहे हैं…द्रोपदी (जनता) को समझा भी रहे हैं और घटनाओं-परिस्थितियों के रूप में उदाहरण देकर द्रोपदी की आंखें भी खोल रहे हैं परंतु द्रोपदी आंख-कान-मुंह बंद किए हुए है। श्रीकृष्ण को समझना है तो अपनी इंद्रियों को जागृत रखना होगा। इंद्रियां जागृत रहेंगी तभी अपने कर्मों का लेखा-जोखा सामने आएगा अन्यथा एक नई महाभारत शुरू हो जाएगी। एक ऐसी महाभारत जिसका हश्र श्रीकृष्ण की महाभारत से भी हजारों गुना अधिक वीभत्स होगा।
-सुमित्रा सिंह चतुर्वेदी