पितृसत्तात्मक समाज और औरतों का गर्भ
गर्डा लर्नर पितृसत्ता को परिभाषित करते हुए कहती हैं कि ‘पितृसत्ता, परिवार में महिलाओं और बच्चों पर पुरुषों के वर्चस्व की अभिव्यक्ति है। यह संस्थागतकरण व सामान्य रूप से महिलाओं पर पुरुषों के सामाजिक वर्चस्व का विस्तार है। इसका अभिप्राय है कि पुरुषों का समाज के सभी महत्त्वपूर्ण सत्ता प्रतिष्ठानों पर नियंत्रण है। महिलाएं ऐसी सत्ता तक अपनी पहुंच से वंचित रहती है।’ वे यह भी कहती हैं कि इसका यह अर्थ नहीं है कि ‘महिलाएं या तो पूरी तरह शक्तिहीन हैं या पूरी तरह अधिकारों, प्रभाव और संसाधनों से वंचित हैं।’ इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हर पुरुष हमेशा वर्चस्व की और हर महिला हमेशा अधीनता की स्थिति में ही रहती है बल्कि जरूरी बात यह है कि इस व्यवस्था, जिसे हमने पितृसत्ता का नाम दिया है, के तहत यह विचारधारा प्रभावी रहती है कि पुरुष स्त्रियों से अधिक श्रेष्ठ हैं और महिलाओं पर उनका नियंत्रण है और होना चाहिए। यहां महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति के रूप में देखा जाता है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों के जीवन के जिन पहलुओं पर पुरुषों का नियंत्रण रहता है, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष उनकी प्रजनन क्षमता है। गर्डा लर्नर के अनुसार, महिलाओं के अधीनीकरण की तह में यह सबसे प्रमुख कारण है। स्त्री की प्रजनन क्षमता को शुरू-शुरू में कबीले का संसाधन माना जाता था, जिससे वह स्त्री जुड़ी होती थी। बाद में जब अभिजात शासक वर्गों का उदय हुआ, तो यह शासक समूह के वंश की संपत्ति बन गई। सघन कृषि के विकास के साथ, मानव श्रम का शोषण और महिलाओं का यौन-नियंत्रण एक-दूसरे से जुड़ गए। इस तरह स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण की आवश्यकता पैदा हुई। यह नियंत्रण निजी संपत्ति के उदय और वर्ग आधारित शोषण के विकास के साथ तेज होता चला गया। यह दौर भी बदला नहीं। आज भी ग्रामीण परिवेश में वंश को चलाने के लिए नारी को प्रजनन का साधन भर ही माना जाता है। आधुनिक समाज भी इस विचार से अछूता नहीं।
भारतीय समाज में गर्भ धारण एक अवैतनिक कार्य है जिसका यदा कदा ही सम्मान किया जाता है। अधिकांश घरों में अब भी डिलीवरी के दुसरे दिन ही प्रसूता को घर के कामों में लगा दिया जाता है जिसकी हेडमास्टर खुद एक स्त्री होती है कभी सास, कभी ननद तो कभी किसी और ही रूप में। दरअसल भारतीय समाज में गर्भ धारण करना भी परिवार के अन्य सदस्यों की अनुमति पर निर्भर करता है। औरतें उस समाज की अंग हैं जहां उन्हें उनके शरीर पर भी अधिकार नहीं दिया जाता है। नियम और क़ानून कतिपय इसकी पुरजोर नुमाइंदगी करते हैं लेकिन समाज इतनी गहरी पैठ करके बैठा है कि इससे उबरने का नाम तक नहीं लेना चाहता।
नारियों के पक्ष में लिखने वाली और बोलने वाली महादेवी वर्मा कई जगह पर अपनी आवाज़ बुलंद करती नज़र आती हैं। वे कहती है -“‘वर्तमान युग के पुरुष ने स्त्री के वास्तविक रूप को न कभी देखा था, न वह उसकी कल्पना कर सका। उसके विचार में स्त्री के परिचय का आदि अंत इससे अधिक और क्या हो सकता था कि वह किसी की पत्नी है। कहना न होगा कि इस धारणा ने ही असंतोष को जन्म देकर पाला और पालती जा रही है।अनियंत्रित वासना का प्रदर्शन स्त्री के प्रति क्रूर व्यंग ही नहीं जीवन के प्रति विश्वासघात भी है।”
कैफ़ी आज़मी ने बहुत ही सटीक लिखा है कि औरतों को अपने अधिकार और हक़ का योद्धा खुद ही होना पड़ेगा ,अन्यथा यह समाज कभी भी अपनी पितृसत्तात्मक गद्दी नहीं छोड़ेगा।
“ज़िंदगी जेहद में है सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू काँपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है निकहत ख़म-ए-गेसू में नहीं
जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उस की आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे”।
– सलिल सरोज
कार्यकारी अधिकारी
लोक सभा सचिवालय
संसद भवन , नई दिल्ली